आद्या शक्ति अपने स्वरूप का वर्णन करते हुए कहती हैं कि मैं छिन्न शीश अवश्य हूं लेकिन अन्न के आगमन के रूप सिर के सन्धान (सिर के लगे रहने) से यज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हूं। जब सिर संधान रूप अन्न का आगमन बंद हो जाएगा तब उस समय मैं छिन्नमस्ता ही रह जाती हूं। इस महाविद्या का संबंध महाप्रलय से है। महाप्रलय का ज्ञान कराने वाली यह महाविद्या भगवती पार्वती का ही रौद्र रूप है। सुप्रसिद्ध पौराणिक हयग्रीवोपाख्यान का (जिसमें गणपति वाहन मूषक की कृपा से धनुष प्रत्यंचा भंग हो जाने के कारण सोते हुए विष्णु के सिर के कट जाने का निरूपण है) इसी छिन्नमस्ता से संबद्ध है।

शिव शक्ति के विपरीत रति आलिंगन पर आप स्थित हैं। आप एक हाथ में खड्ग और दूसरे हाथ में मस्तक धारण किए हुए हैं। अपने कटे हुए स्कन्ध से रक्त की जो धाराएं निकलती हैं, उनमें से एक को स्वयं पीती हैं और अन्य दो धाराओं से अपनी जया और विजया नाम की दो सहेलियों की भूख को तृप्त कर रही हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना इन तीन नाडियों का संधान कर योग मार्ग में सिद्धि को प्रशस्त करती हैं। विद्यात्रयी में यह दूसरी विद्या गिनी जाती हैं।

देवी के गले में हड्डियों की माला तथा कन्धे पर यज्ञोपवीत है। इसलिए शांत भाव से इनकी उपासना करने पर यह अपने शांत स्वरूप को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है। दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनि चक्र है। छिन्नमस्ता की साधना दीपावली से शुरू करनी चाहिए। इस मंत्र के चार लाख जप करने पर देवी सिद्ध होकर कृपा करती हैं। जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मण और कन्या भोजन करना चाहिए।

जिस प्रतिमा को महामाया के नाम से लोग पूजते हैं। इसके पहले इनका नाम समलाया था। महामाया मंदिर में ही दो मूर्तियां स्थापित थी वर्तमान महामाया को बड़ी समलाया कहा जाता था। वर्तमान में समलाया मंदिर में विराजी मां समलाया को छोटी समलाया कहते थे। बाद में जब समलाया मंदिर में छोटी समलाया को स्थापित किया गया। तब बड़ी समलाया को महामाया कहा जाने लगा और तभी से अम्बिकापुर के नवागढ़ में विराजी मां महामाया और मोवीनपुर में विराजी मां समलाया की पूजा लोग इन रूपों में कर रहे हैं।