हरसिद्धि माता राजा विक्रमादित्य की आराध्य देवी भी मानी जाती हैं। यहीं पर मौजूद है 2000 साल पुराना 51 फीट ऊंचा दीप स्तंभ। इसमें करीब 1011 दीये हैं। इन दीयों को 6 लोग 5 मिनट में प्रज्ज्वलित कर देते हैं। इसके बाद पूरा मंदिर रोशनी से जगमग हो उठता है। इसमें 60 लीटर तेल और 4 किलो रुई लगती है।

नवरात्र के पहले दिन मंदिर पर घटस्थापना के साथ विशेष आरती की गई। यहां लाइटिंग भी की गई है। नौ दिनों तक यहां देशभर से श्रद्धालु दर्शनों के लिए आएंगे। भक्तों की आस्था ऐसी है कि दीप प्रज्ज्वलित करवाने के लिए 10 दिसंबर तक की यहां वेटिंग लिस्ट है।

श्री हरसिद्धि माता शक्तिपीठ मंदिर, माता सती के 52 शक्तिपीठों में 13वां शक्तिपीठ कहलाता है। कहा जाता है कि यहां माता सती के शरीर में से बायें हाथ की कोहनी के रूप में 13वां टुकड़ा मध्य प्रदेश के उज्जैन स्थित भैरव पर्वत नामक इस स्थान पर गिरा था। लेकिन कुछ विद्वानों का मत है कि गुजरात में द्वारका के निकट गिरनार पर्वत के पास जो हर्षद या हरसिद्धि शक्तिपीठ मंदिर है वही वास्तविक शक्तिपीठ है। जबकि उज्जैन के इस मंदिर के विषय में कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य स्वयं माता हरसिद्धि को गुजरात से यहां लाये थे। अतः दोनों ही स्थानों पर शक्तिपीठ की मान्यता है।

मध्य प्रदेश के उज्जैन में स्थित शिप्रा नदी के रामघाट के नजदीक भैरव पर्वत पर स्थित श्री हरसिद्धि माता शक्तिपीठ मंदिर प्राचीन रूद्रसागर के किनारे स्थित है। कहा जाता है कि कभी यह पानी से लबालब भरा रहता था ओर इसमें कमल के फूलों की बहार हुआ करती थी और कमल के वही फूल माता के चरणों में अर्पित किये जाते थे। हालांकि रूद्रासगर आज सरकारों की अनदेखी के चलते एक नाममात्र का ही सागर रह गया है।

हरसिद्धि माता को ‘मांगल-चाण्डिकी’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि माता हरसिद्धि की साधना करने से सभी प्रकार की दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। राजा विक्रमादित्य जो अपनी बुद्धि, पराक्रम और उदारता के लिए जाने जाते थे इन्हीं देवी की आराधना किया करते थे। इसलिए उन्हें भी हर प्रकार की दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त हो गईं थीं। इसी कारण मांगल-चाण्डिकी देवी को हरसिद्धि अर्थात हर प्रकार की सिद्धि की देवी नाम दिया गया।

किंवदंतियों के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने 11 बार अपने शीश को काटकर मां के चरणों में समर्पित कर दिया था, लेकिन हर बार देवी मां उन्हें जीवित कर देती थीं। इस स्थान की इन्हीं मान्यताओं के आधार पर कुछ गुप्त साधक यहां विशेषरूप से नवरात्र में गुप्त साधनाएं करने आते हैं। इसके अतिरिक्त तंत्र साधकों के लिए भी यह स्थान विशेष महत्व रखता है। उज्जैन के आध्यात्मिक और पौराणिक इतिहास की कथाओं में इस बात का विशेष वर्णन भी मिलता है।

जैसा कि शक्तिपीठ मंदिरों की उत्पत्ति के विषय में हमारे पुराणों में वर्णित है कि अपने पिता दक्ष द्वारा अपमानित होकर देवी सती ने हवनकुंड में आत्मदाह कर लिया था। जिसके बाद क्रोध में आकर भगवान शिव ने वैराग्य धारण कर लिया और सती के उस शव को अपने कंधे पर उठाए ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने रहे।

भगवान शिव के वैराग्य धारण कर लेने से सृष्टि का संचालन बाधित हो रहा था इसलिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े कर दिए। और जहां-जहां शव के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुईं कहा जाता है कि उन शक्तिपीठों की रक्षा आज भी स्वयं भगवान शिव अपने भैरव रूप में करते हैं। उज्जैन स्थित भैरव पर्वत नामक इस स्थान पर माता सती के शरीर में से बायें हाथ की कोहनी के रूप में 13वां टुकड़ा गिरा था। तब से यह स्थान 13वां शक्तिपीठ कहलाता है।

मंदिर के गर्भग्रह में माता की जो मूर्ति है वह किसी व्यक्ति विशेष द्वारा दिया गया आकार नहीं बल्कि यह एक प्राकृतिक आकार में है जिस पर हल्दी और सिन्दूर की परत चढ़ी हुई है। मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भैरव जी की मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में तीन मूर्तियां विराजमान हैं जिसमें सबसे ऊपर माता अन्नपूर्णा, मध्य में माता हरसिद्धि और नीचे माता कालका विराजती हैं।