बात 1939 की है। पंडित मदन मोहन मालवीय ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर को चिट्ठी लिखकर हमेशा के लिए भारत आने का न्योता भेजा। शिक्षा दर्शन (Philosophy) के ये प्रोफेसर वहां पूर्वी दुनिया के धर्म और नैतिकता के पाठ पढ़ाया करते थे। प्रोफेसर ने भी खुशी-खुशी न्योता स्वीकार किया और ऑक्सफोर्ड की नौकरी छोड़कर भारत आ गए।
ये प्रोफेसर कोई और नहीं बल्कि तमिलनाडु में एक स्थानीय जमींदार के लिए जमीनों की पैमाइश करने वाले सर्वपल्ली वीरस्वामी का बेटा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। पंडित मदन मोहन ने उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, यानी BHU का वाइस चांसलर बना दिया। 20 साल की उम्र से शिक्षा दर्शन (Philosophy) पढ़ा रहे डॉ. राधाकृष्णन के लिए यह टर्निंग पॉइंट साबित हुआ।
इसके बाद ये प्रोफेसर राजनीति और कूटनीति के दरवाजे पर दस्तक देता है। दस्तक इतनी तेज कि डॉ. राधाकृष्णन आजाद भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भी बने।
उनकी ये कहानी बताती है कि एक शिक्षक जब राजनयिक बनता है, तो कैसे वह माओ और स्टालिन जैसे तानाशाहों के गाल थपथपाकर या बालों को सहलाकर शिष्यों की तरह बात कर सकता है।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। यह वो समय था जब दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद दुनिया दो ध्रुवों में बंट चुकी थी। एक तरफ अमेरिका की अगुआई में पूंजीवादी पश्चिमी देश थे, तो दूसरी तरफ विशाल सोवियत संघ की अगुआई में कम्युनिस्ट और ऐसे देश, जो किसी न किसी रूप में सोवियत संघ के करीब थे।
इधर, 1949 आते-आते देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू गुटनिरपेक्षता के बारे में सोचने लगे थे। उनका मानना था कि भारत जैसे नए नवेले देशों को बड़ी ताकतों की इस लड़ाई से दूर ही रहना चाहिए।
इधर, संविधान बनकर करीब-करीब तैयार था। तभी नेहरू ने डॉ. राधाकृष्णन से मुलाकात की और उनसे संविधान सभा छोड़ने को कहा। दरअसल, नेहरू राधाकृष्णन को सोवियत संघ में भारत का राजदूत बनाने का फैसला कर चुके थे। उन्हें दो धड़ों में बंट चुकी दुनिया को साधने के लिए किसी दमदार कैरेक्टर की जरूरत थी, जो ताकतवर देशों के ताकतवर नेताओं को समझा सके।